कथाकार : एंटन चेखव (मशहूर रूसी लेखक)
अनुवाद : प्रेमचंद गांधी
‘मैं क्या लिखूं’, येगोर ने कहा और उसने अपनी कलम स्याही में डुबो दी।
वसीलिसा अपनी बेटी से पिछले चार साल से नहीं मिली थी। उसकी बेटी येफीम्या शादी के बाद पीटर्सबर्ग चली गई थी। उसने बीच में बेटी-दामाद को दो पत्र भेजे थे और इसके बाद उसे लगा था कि वे उसकी जिंदगी से बिल्कुल गायब हो गये हैं। फिर उन दोनों की उसे कहीं से कोई खबर नहीं मिली। इसके बाद बुढि़या चाहे अलस्सुबह गाय का दूध निकाल रही हो, चूल्हा जला रही हो, रात में झपकियां ले रही हो, वह हमेशा एक ही बात सोचती रहती थी और इसी चिंता में घुली रहती थी कि येफीम्या के साथ क्या हो रहा होगा, उधर वह जिंदा भी है कि नहीं…. वह बेटी को और चिट्ठी भेजना चाहती थी, लेकिन बू़ढ़ा बाप लिख नहीं सकता था और कोई भी वहां ऐसा नहीं था जो लिख सके। लेकिन अब क्रिसमस के दिन आ गये थे और वसीलिसा अधिक बरदाश्त नहीं कर सकती थी। इसलिये वह शराबखाने में येगोर के पास गई। येगोर सराय चलाने वाले की बीवी का भाई है और सेना से वापस आने के बाद शराबखाने में बैठे रहने के अलावा कुछ नहीं करता। लोगों ने उसके बारे में कहा कि वह चिट्ठी लिख सकता है अगर उसे ठीक से लिखने की मजदूरी दी जाए। वसीलिसा ने पहले शराबखाने के बावर्ची से बात की, फिर मालकिन से और अंत में येगोर से। दोनों पंद्रह कोपेक पर सहमत हो गये।
और अब क्रिसमस की छुट्टियों के दूसरे दिन यह हुआ कि शराबखाने की रसोई की मेज पर येगोर बैठा था और उसने हाथ में कलम थाम रखा था। वसीलिसा उसके सामने खड़ी थी और उसके चेहरे से दुख, तकलीफ और चिंता के भाव उमड़ रहे थे। उसका पतला-दुबला बूढ़ा पति प्योत्र, जिसके भूरे बालों में काफी गंजापन आ गया था, उसके साथ आया था। वह उसके सामने किसी अंधे आदमी की तरह सीधा खड़ा था। चूल्हे पर सुअर के मांस का एक टुकड़ा तसले में पक रहा था, जिससे फुहारें छूट रही थीं और आवाजें आ रही थीं, जैसे कह रहा हो ‘फ्लू-फ्लू’…. मानो उसका दम घुंट रहा था।
‘मुझे क्या लिखना है।‘ येगोर ने फिर सेू पूछा।
‘क्या।‘ वसीलिसा ने उसकी ओर नाराजगी और संदेह से देखते हुए कहा। ‘मुझे परेशान मत करो, तुम फालतू में किसी के लिए नहीं लिख रहे हो, डरने की बात नहीं, तुम्हें तुम्हारा भुगतान किया जाएगा…. चलो लिखो, ‘ हमारे प्यारे दामाद आंद्रेय ह्रसानफिच के लिए, और हमारी इकलौती प्यारी बिटिया येफीम्या पेत्रोव्ना के लिए, हम हमेशा-हमेशा के लिए अपना ढेर सारा स्नेह और माता-पिता का आशीर्वाद भेजते हैं।‘
‘लिख लिया ना, तो अब आगे लिखो….’
‘और हम उन्हें हैप्पी क्रिसमस कहते हुए क्रिसमस की शुभकामनाएं देते हैं…. हम जिंदा हैं और ठीक से हैं और तुम्हारे लिए भी यही कामना करते हैं। ईश्वर तुम्हें खुश रखे और बनाये रखे।’
कहते हुए वसीलिसा सोच में पड़ गई और अपने पति से नजरें मिलाने लगी। उसने फिर से दोहराया, ‘हम तुम्हारे लिए भी यही कामना करते हैं…. ईश्वर तुम्हें खुश रखे और बनाये रखे।’
वह इससे अधिक कुछ नहीं कह सकती थी। और इससे पहले रात में जब वह लेटी हुई सोच रही थी तो क्या-क्या खयाल आ रहे थे। उसे लगता था कि कितना कुछ है जो वह अपने दर्जनों पत्रों में नहीं बता पाई है। जब से बेटी दामाद के साथ गई है समुद्र में कितना पानी बह चुका है। दोनों को लगता रहा कि जैसे उनसे उनकी बेटी छीन ली गई है और वे रातों में ऐसे आहें भरते, जैसे कि उनकी बेटी को दफना दिया गया हो। तब से कितनी सारी घटनाएं गांव में घट चुकी हैं, कितनी शादियां और कितनी मौतें हो चुकी हैं…. सर्दियां कितनी लंबी हैं और कितनी लंबी हो गई हैं रातें….
‘बहुत गर्मी है’, येगोर ने कमर से अपना कोट खोलते हुए कहा। ‘तापमान 70 डिग्री होना चाहिये…. या कि इससे भी ज्यादा….’ उसने पूछा।
दोनों बुजुर्ग चुपचाप खड़े रहे।
‘तुम्हारा दामाद पीटर्सबर्ग में क्या करता है।‘ येगोर ने पूछा।
‘वह सेना में था जनाब।‘ बूढ़े ने कमजोर आवाज में कहा। ‘उसने ठीक उसी समय सेना की नौकरी छोड़ी थी जब आपने छोड़ी। वह सैनिक था और अब पक्के तौर पर वह जल चिकित्सा संस्थान में होगा। वहां डॉक्टर पानी से इलाज करते हैं, इसलिये वह जरूर डॉक्टर के यहां दरबान का काम करता होगा।‘
‘यहां इसमें यह लिखा हुआ है।‘ बुढि़या ने जेब से एक पत्र निकालते हुए कहा, ‘यह हमें येफीम्या से मिला था, भगवान जाने कब…. हो सकता है वे दोनों अब इस दुनिया में ही ना हों….’
येगोर ने कुछ सोचा और तेजी से लिखने लगा :
‘आज के हालात में’, उसने लिखा, ‘चूंकि तुम्हारी नियति ने तुम्हें अपने ही कर्मों के कारण सैन्य सेवा में भेज दिया है, इसलिए हमारी सलाह है कि तुम युद्ध कार्यालय के आधारभूत नियमों, अनुशासन और आचार संहिता को ठीक से जान-समझ लो और यह सब तुम्हें युद्ध कार्यालय के अधिकारियों के नियमों और उनके सभ्य आचरण में देखने को मिल जाएगा।’
उसने लिखा और पढ़ने लगा कि उसने क्या लिखा है। जबकि वसीलिसा सोचने लगी वह क्या लिखवाना चाहती थी…. कि पिछला साल कितने अभावों में गुजरा।। कि कैसे उनकी फसल क्रिसमस तक नहीं पकी थी…. कि कैसे उन्हें अपनी गाय बेचनी पड़ी थी। वह उनसे कुछ मदद मांगना चाहती थी। वह लिखवाना चाहती थी कि बूढ़ा बाप अब बहुत बीमार रहने लगा है।। कि वह किसी भी दिन भगवान को प्यारा हो सकता है…. लेकिन इन सब बातों को कैसे और किन शब्दों में लिखवाए। पहले क्या कहना चाहिये और बाद में क्या….
‘ध्यान रखना’ येगोर फिर लिखने लगा, ‘सेना की नियमावली के पांचवें खंड में सैनिक एक व्यक्तिवाचक संज्ञा है और जातिवाचक भी…. पहले दरजे का सैनिक जनरल कहा जाता है और आखिरी को प्राइवेट कहते हैं….‘
बूढ़े ने अपने होंठ फड़फड़ाए और कोमलता के साथ कहा, ‘बेहतर होगा कि तुम लोग बच्चों की ठीक से देखभाल करो।‘
‘कौन-से बच्चे’, बुढि़या ने पूछा और नाराजगी से उसकी ओर देखते हुए बोली, ‘मेरे खयाल से उनके कोई बच्चा नहीं है।‘
‘ठीक, लेकिन शायद हों। कौन जानता है।‘
‘और इस तरह तुम खुद निर्णय ले सकते हो’, येगोर ने लिखना जारी रखा, ‘कि दुश्मन के बिना क्या होता है, दुश्मन अपने ही भीतर हो तो क्या होता है। दुश्मनों में सबसे बड़ा दुश्मन शराब का देवता है।‘ कलम चरमरा कर आवाज करने लगी, कागज पर वह ऐसे लगने लगी जैसे मछली फंसाने के लिए हुक लगे हों। येगोर ने काफी जल्दबाजी दिखाई और हर पंक्ति को बार-बार पढ़ने लगा। वह एक स्टूल पर बैठा था और उसने अपने पांव मेज के नीचे फैला रखे थे। वह अपने स्वभाव, आचरण और मुद्राओं से बिल्कुल ही ऐसा अशिष्ट लग रहा था, जिसे अपनी पैदाइश और अपने खानदान पर बहुत गर्व और अभिमान हो। वसीलिसा को उसकी अशिष्टता का भान हो गया था, लेकिन वह कुछ कह नहीं सकती थी। उसके सिर में दर्द होने लगा था और येगोर की विचित्र आवाजों और भंगिमाओं ने उसे बहुत से संदेहों में डाल दिया था। लेकिन वह कुछ नहीं बोली और पत्र पूरा होने का इंतजार कर रही थी। लेकिन उसका बूढ़ा पति पूरे आत्मविश्वास के साथ खड़ा था। उसे अपनी पत्नी और येगोर पर पूरा विश्वास था। जब उसने जल चिकित्सा संस्थान की बात कही थी तो उसे देख कर लगता था कि उसे उस संस्थान पर ही नहीं जल चिकित्सा पर भी पूरा विश्वास था। पत्र समाप्त करने के बाद येगोर उठा और शुरु से आखिर तक पूरा पत्र फिर से पढ़ डाला। बुजुर्ग बाप कुछ नहीं समझ पाया लेकिन उसने विश्वास जताते हुए अपनी गर्दन हिलाई और कहा, ‘यह बिल्कुल ठीक है जनाब…. बहुत सुंदर…. शुक्रिया। ईश्वर आपको सेहत बख्शे। शुक्रिया आपका…. यह बिल्कुल ठीक है जनाब।‘
उन्होंने पांच कोपेक के तीन सिक्के मेज पर रखे और शराबखाने से बाहर निकल कर चल दिये। बूढा सीधा ऐसे निकला जैसे वह अंधा हो और उसके चेहरे पर संतोष की चमक थी। वसीलिसा नाराजगी और गुस्से में निकली और दरवाजे पर कुत्ते को हड़काते हुए बोली, ‘हुंह, पिस्सू कहीं का।‘
बुढि़या रात भर सो नहीं पाई, उसे पूरी रात खयालों ने परेशान किये रखा और भोर होते ही वह उठ गई। प्रार्थना के बाद वह चिट्ठी पहुंचाने स्टेशन के लिए निकल पड़ी।
उसके घर से स्टेशन आठ-नौ मील की दूरी पर था।
डॉ। बी।ओ। मोजेलवीजर का जल चिकित्सा संस्थान नए साल के दिन भी आम दिनों की तरह ही काम कर रहा था। फर्क सिर्फ उनके दरबान आंद्रेय ह्रसानफिच पर नजर आता था, जिसने नई कड़क फीतेदार वरदी और नए चमचमाते पॉलिश किये जूते पहने रखे थे और वह सब आने वालों को ‘आपको नया साल मुबारक हो’ कह कर स्वागत कर रहा था।
यह सुबह का वक्त था जब आंद्रेय दरवाज़े पर खड़ा अखबार पढ़ रहा था। ठीक दस बजे एक जनरल आया और इसके ठीक बाद डाकिया। जनरल रोज आता था, आंद्रेय ने उसके बड़े लंबे कोट को उतारने में मदद करते हुए नए साल की मुबारकबाद दी और बदले में जनरल ने भी नया साल मुबारक कहा।
जनरल ने रोज की तरह उससे पूछा कि सामने वाले कमरे में क्या है, तो आंद्रेय ने कहा कि यह मसाज रूम है सर।
जनरल के चले जाने के बाद आंद्रेय ने उस डाक को देखा जो उसके नाम आई थी। उसने डाक खोलने के बाद उसे कई बार पढ़ा-देखा और अखबार पर कुछ देर नजर डालने के बाद तेजी से अपने कमरे की ओर भागा। उसका कमरा सीढि़यां उतर कर गलियारा खत्म होने के बाद था। उसकी बीवी येफीम्या बिस्तर पर बैठी बच्चे को दूध पिला रही थी। दूसरा यानी सबसे बड़ा वाला मां के घुटनों पर अपने घुंघराले बालों वाला सिर टिकाए खड़ा था और तीसरा बिस्तर पर सो रहा था।
कमरे में जाते ही आंद्रेय ने पत्र अपनी बीवी को दिया और कहा, ‘शायद गांव से आया है।‘
फिर वह अखबार पर से नजरें हटाए बिना कमरे से तेजी से बाहर निकल लिया। कांपती हुई आवाज में येफीम्या का शुरुआती पंक्तियां पढ़ना उसे सुनाई दे रहा था। येफीम्या ने शुरु की पंक्तियां पढ़ीं और फिर आगे नहीं पढ़ सकी। उसके लिए इतनी ही पंक्तियां काफी थीं। उसके आंसू अविरल बह चले। बड़े बच्चे को गले से लगाते हुए और उस पर चुंबनों की बौछार करते हुए वह जो कुछ लगातार कहे जा रही थी, उसके बारे में कहना मुश्किल है कि वह हंस रही थी या कि रो रही थी।
‘यह नाना-नानी की चिट्ठी है…. गांव से आई है….’ वह बोलती जा रही थी। ‘गांव जहां देवियों जैसी मां है…. संतों जैसे बाबा और गांव के बुजुर्ग हैं।। बर्फ छतों से नीचे तक आ गई है…. पेड़ बिल्कुल सफेदी जैसे सफेद हो गये हैं…. बच्चे छोटी स्लेज गाडि़यों पर फिसलते हैं…. और तुम्हारे बूढ़े गंजे नानाजी आतिशदान के पास बैठे रहते हैं…. और वहां एक प्यारा-सा पीला कुत्ता भी है…. मेरे तमाम प्यारे वहां हैं….’
यह सुनते हुए आंद्रेय को याद आया कि बीवी ने तीन-चार बार उसे पत्र देते हुए कहा था कि गांव में चिट्ठी भेजनी है, लेकिन हमेशा कोई बहुत जरूरी काम उसे रोकता रहा और वो कभी बीवी की चिट्ठियां गांव नहीं भेज सका। और आखिरकार वे पत्र कहीं गुम ही हो गये।
‘और यहां खेतों में छोटे-छोटे खरगोश दौड़ते रहते हैं….’ येफीम्या अपने लड़के को चूमते हुए और आंसू बहाते हुए बुदबुदाती गाए जा रही थी। ‘तुम्हारे नाना बड़े दयालु और सज्जन हैं…. नानी भी खुले दिल वाली है…. दोनों गांव में बहुत गर्मजोशी वाले लोग माने जाते हैं…. भगवान से डरने वाले हैं…. और हां गांव में एक गिरजा है, जहां सब किसान प्रार्थना करते हैं कि हे मदर मैरी…. हे ईश्वर के पुत्र हमें अपनी शरण में ले लो….’
आंद्रेय जब अपने कमरे में जरा देर सिगरेट पीने के लिए आया तो दरवाजे पर एक और घंटी बजी। येफीम्या ने बोलना बंद कर दिया, शांत होकर आंसू पोंछ लिये, हालांकि उसके होंठ अभी भी कांप रहे थे। वह उससे बुरी तरह डर गई थी। ओह…. उससे इतना डर गई थी वह…. येफीम्या बुरी तरह कांप उठी और उसके कदमों की आवाज से, उसकी आंखों में व्याप्त अजनबियत से भयभीत हो गई और उसे बिल्कुल भी हिम्मत नहीं हुई कि वह उसकी मौजूदगी में कुछ भी कहे-बोले।
आंद्रेय ने एक सिगरेट सुलगाई लेकिन ठीक उसी वक्त ऊपर सीढि़यों से घंटी की आवाज आई। उसने सिगरेट छोड़ी और एक मुर्दानगी वाली मुद्रा बनाते हुए तेजी से बाहर निकल लिया।
जनरल अपने स्नान से ताज़ा और महकता हुआ, सीढि़यों से नीचे उतर कर आ रहा था।
‘और उस कमरे में क्या है।‘ जनरल ने एक दरवाजे की ओर संकेत करते हुए पूछा।
आंद्रेय ने अपनी पतलून की जेबों में तेजी से हाथ अंदर करते हुए जोरों से कहा, ‘यहां औषधीय झरना है श्रीमान….।’
‘जानकीपुल’ से साभार