टांकेलालजी चुनाव का टिकट लेने के लिए किस किस दल नहीं बजे? किस किससे बुरा नहीं सुना? किस किसको बुरा नहीं कहा?
आखिर टांकेलालजी को टिकट मिल ही गया और अंततः वे उस पार्टी के वफादार हो ही गए ।
टिकट पाकर टांकेलालजी यों गदगद ज्यों मोक्ष मिल गया हो।
किसी भी समाजसेवा को ललकियाए को टिकट मिलना मोक्ष मिलने से कम नहीं होता।
ज्यों ही टांकेलालजी को टिकट मिला तो वे सबसे पहले परंपरा निर्वाह करते हुए जीत का आशीर्वाद लेने अपने दल बल खल सहित शिवजी की शरण में पहुंचे। दोनों हाथ जोड़ उनसे अपनी जीत हेतु निवेदन किया,‘ प्रभु! जैसे कैसे टिकट का जुगाड़ तो कर गया, पर अब जीत का जुगाड़ आपके हाथ में है। आधा काम मैंने कर दिया, आधा आप कर दो तो आपके लिए विशाल मंदिर का निर्माण करवाऊं,’ पर टिकटियाए टांकेलालजी की आर्तवाणी सुन शिव मौन रहे तो टांकेलालजी ने पुनः कहा,‘ हे प्रभु! तनिक मेरी ओर तो देखो। आपकी शरण में कौन आया है? तो वे नाक भौं सिकोड़ते बोले,‘ जानता हूं ,चुनाव के दिनों में मेरी शरण में तुम जैसों के सिवाय और आता ही कौन है?’
‘ मुझे जीत का वरदान दे चुनाव में जीताओ हे प्रभु!’
‘देखो! मैं पार्टियों की तरह अपने सदस्यों को अंधेरे में नहीं रखता। सो…’
‘सो क्या प्रभु??’
‘मैं तुमसे पहले आए को जीत का अभय वरदान दे चुका हूं। तुमने आने में देर कर दी,’ उन्होंने उनसे पल्ला झाड़ते कहा।
‘पर प्रभु! बिन टिकट के पहले ही आपके पास आ जाता क्या? जब टिकट मिला तभी तो….’
‘जीत के लिए शरण की एडवांस बुकिंग भी तो करवा सकते थे कि नहीं…’ लगा जैसे उन्हें टांकेलालजी से हमदर्दी तो हो लेकिन…
‘ ऐसा भी होता है क्या?’
‘एडवांस बुकिंग आजकल कहां नहीं? सेफ्टी के लिए यह बहुत जरूरी है। देखो तो वे विवाह से पहले ही अपने बच्चों की एडमिशन की एडवांस बुकिंग करवा रहे हैं।’
‘तो अब??’
‘अब ऐसा करो रामजी के मंदिर में जाओ! हो सकता है उन्होंने नेताओं से रूठे होने के चलते अभी किसीको शरण में न लिया हो,’ शिवजी की बात सुन टांकेलालजी नंगे पांव ही शहर के रामजी के मंदिर की ओर लपके। रामजी उस वक्त पता नहीं किस सोच में डूबे हुए थे,‘ रामजी! हे रामजी! ’ टांकेलालजी ने आवाज दी तो रामजी की तंद्रा भंग हुई। अपने भक्तों पर से विश्वा!स तो कभी का भंग हो चुका है।
‘ क्या है भक्त?’
‘ भक्त नहीं, प्रभु मैं नेता! नेता बोले तो लोकतंत्र का रक्षक!’
‘कहो? क्या चाहते हो?’
‘ प्रभु! जानता हूं आपसे कुछ मांगने के लायक नहीं। आपसे मैं मांगू ही क्या जो इतने सालों तक हमने आपको लारे में ही लगाए रखा। पर मांगना मेरी मजबूरी है सो…. मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझे अपनी शरण में ले लो प्रभु!’
‘देखो जनसेवक ! अपनी शरण तो मैं किसी और को ले चुका हूं। वे जैसे भी हैं, मेरे हैं।’
‘ तो??’
‘तो ऐसा करो अब इधर उधर मत भागो! सभी सुरों असुरों की शरणों की बुकिंग हो चुकी है,’ कुछ सोचने के बाद वे आगे बोले,‘ गधों की शरण में जाओ।’
‘दुलत्ती खाने। टिकट के लिए लड़ने के बाद बचे दांत अब गधों की लात से तुड़ावने का इरादा है क्या प्रभु? मतलब मैं अब बक भी न सकूं? ’
‘नहीं। गाय की शरण में वे जा चुके हैं। घोड़ों की शरण में वे जा चुके हैं। सांडों की शरण में वे जा चुके हैं। तो अब ले देकर बचे बस गधे। पर डरो मत! चुनाव में जीत डिसाइड गधे ही करते हैं।’
‘मतलब??’
‘जो मैं कहता हूं करो ! जीत पक्की होगी। तथास्तु!’
और टांकेलालजी गधों की शरण में…. मरते क्या न करते! उनकी किस्मत ही अच्छी थी कि अभी तक गधों की शरण में कोई नहीं आया था। सो गधे टांकेलालजी को अपनी शरण में आया देख गदगद हो गए। गधों के मुखिया ने तत्काल व्हिप जारी करते कहा,‘ हे टांकेलालजी के चुनाव क्षेत्र के तमाम गधो! हमारी अस्मिता संकट में हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों का हमारे लिए खुला चैलेंज है, हमें अपना प्रतिनिधि मिल गया है। अतः पूरे गधा समुदाय को आदेश है कि टांकेलालजी को ही वोट डाल उनको सफल बनाएं। वे जीतेंगे तो हम जीतेंगे। उनकी जीत, हमारी जीत। यह चुनाव अब टांकेलालजी की नाक का नहीं, हमारी नाक का सवाल है। हे टांकेलालजी जाओ! मजे से लंबी तान कर सो जाओ। सोच लो, अब यह टिकट आपको नहीं, हमें टिकट मिला है।’